पिथौरागढ़: उत्तराखंड में जहां रंगों का त्यौहार हर जगह मनाया जा रहा है, वहीं इसके अंदरूनी उत्तरी हिस्से में 125 से अधिक गांवों के लोंग अपने कुलदेवताओं के प्रकोप से बचने के लिए रंगों के त्यौहार से दूर रहते है। जानकारी के अनुसार पिथौरागढ़ जिले के तल्ला डारमा, तल्ला जोहार क्षेत्र और बागेश्र्वर जिले के मल्ला दानपुर क्षेत्रों के 125 गांवों के लोग होली का पर्व नहीं मनाते है। क्योंकि उनके कुलदेवता रंगों से खेलने पर नाराज हो जाते है।
होली, जिसे सनातनी हिंदू परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है, आमतौर पर फाल्गुन माह में उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है। हालांकि, उत्तराखंड के कुछ गांवों और अन्य राज्यों के कुछ हिस्सों में इसे नहीं मनाने की परंपरा चली आ रही है। इसके पीछे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।
कुमाऊं में होली का ऐतिहासिक सफर
सांस्कृतिक इतिहासकार पद्म दत्त पंत बताते हैं कि कुमाऊं क्षेत्र में होली का प्रचार-प्रसार 14वीं शताब्दी में हुआ, जब चंपावत के चंद वंश के राजाओं ने इसे अपनाया। इस पर्व को मुख्य रूप से ब्राह्मण पुजारियों के माध्यम से विभिन्न इलाकों में स्थापित किया गया। जिन क्षेत्रों में ये पुजारी पहुंचे, वहां होली का प्रचलन बढ़ा, लेकिन जहां वे नहीं पहुंचे, वहां यह त्योहार लोकप्रिय नहीं हो सका।
कुछ गांवों में होली से परहेज क्यों?
बागेश्वर जिले के सामा क्षेत्र के कुछ गांवों में मान्यता है कि अगर ग्रामीण रंगों से खेलते हैं, तो उनके कुलदेवता नाराज होकर प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप ला सकते हैं। इसी तरह, गढ़वाल के रुद्रप्रयाग जिले के क्वीली, खुरझांग और एक अन्य गांव के निवासियों ने करीब 150 वर्षों से होली नहीं मनाई। बताया जाता है कि अतीत में इन गांवों में त्रिपुरा सुंदरी देवी के क्रोध से भारी प्राकृतिक आपदाएं आई थीं, जिसके बाद से वहां इस पर्व को न मनाने की परंपरा शुरू हो गई।
अन्य राज्यों में भी है यह मान्यता
ऐसी मान्यताएं केवल उत्तराखंड तक सीमित नहीं हैं। गुजरात के बनासकांठा और झारखंड के दुर्गापुर के कुछ आदिवासी गांवों में भी कुलदेवताओं के कोप के भय से होली नहीं खेली जाती।
रंगीन कपड़ों पर भी है प्रतिबंध
पिथौरागढ़ के तल्ला जोहरा क्षेत्र में चिपला केदार देवता की गहरी आस्था रखने वाले कुछ गांवों में न केवल होली प्रतिबंधित है, बल्कि वहां होली के दौरान गाने-बजाने को भी वर्जित माना जाता है। श्रद्धालु जब इस देवता की पूजा और यात्रा करते हैं, तो केवल सफेद वस्त्र धारण करते हैं और रंगीन कपड़े पहनने की अनुमति नहीं होती।
हालांकि, समय के साथ इन इलाकों में अन्य हिंदू त्योहारों को स्वीकार किया जाने लगा है। दशहरा और दीपावली जैसे पर्व अब यहां मनाए जाते हैं, और कई जगहों पर रामलीला मंचन की परंपरा भी शुरू हो चुकी है।
संस्कृति और आस्था का अनूठा संगम
हर क्षेत्र की अपनी परंपराएं और मान्यताएं होती हैं, और यह विविधता भारतीय संस्कृति को विशेष बनाती है। जहां एक ओर उत्तराखंड के कई हिस्सों में होली धूमधाम से मनाई जाती है, वहीं कुछ स्थानों पर धार्मिक आस्थाओं के कारण इसे न मनाने की परंपरा बरकरार है।
Story by-Megha Bhardwaj