सड़क किनारे बचपन: देश की राजधानी से लेकर छोटे शहरों और गांवों तक, ट्रैफिक सिग्नलों, मंदिरों, रेलवे स्टेशनों और बाजारों में भीख मांगते बच्चों की तस्वीर आम हो चली है। मासूम चेहरों पर धूल की परत, हाथों में कटोरा और उम्मीद भरी आंखें — यह दृश्य न सिर्फ दिल को छूता है बल्कि कई सवाल भी खड़े करता है।

सड़क किनारे बचपन: इन बच्चों की उम्र स्कूल जाने, खेलने-कूदने और सपने देखने की होती है, लेकिन हालात इन्हें सड़कों पर ला खड़ा करते हैं। कई बच्चे अनाथ होते हैं, तो कुछ ऐसे हैं जिन्हें परिवार की आर्थिक मजबूरी ने इस रास्ते पर धकेल दिया है। कुछ मामलों में बच्चों को जबरन भीख मंगवाया जाता है, जो एक गंभीर अपराध है।

सड़क किनारे बचपन: बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, देश में हज़ारों ऐसे बच्चे हैं जो शिक्षा, सुरक्षा और पोषण से वंचित हैं। सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं जैसे “सर्व शिक्षा अभियान”, “बाल श्रम उन्मूलन योजना” और “चाइल्ड हेल्पलाइन” के बावजूद इन बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय कमी नहीं आई है।

सड़क किनारे बचपन: समाजसेवी संस्थाएं इन बच्चों के पुनर्वास और शिक्षा के लिए कार्य कर रही हैं, लेकिन ज़रूरत है व्यापक जनसहयोग और कड़े कानूनों की प्रभावी क्रियान्वयन की। जब तक समाज और शासन एकजुट होकर इनके भविष्य को बेहतर बनाने के लिए कदम नहीं उठाते, तब तक सड़कों पर मासूम बचपन यूं ही भटकता रहेगा।

सड़क किनारे बचपन: सवाल यह है कि क्या हम केवल देखने और अनदेखा करने के लिए हैं? क्या एक नागरिक के तौर पर हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं? अगर हम इन बच्चों को कुछ रुपयों के बजाय एक बेहतर रास्ता दिखा सकें — जैसे कि किसी संस्था से जोड़ना, भोजन