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गौरा देवी की शौर्यगाथा

गौरा देवी की शौर्यगाथा: पिछली दो शताब्दियों से जब दुनिया का ध्यान पर्यावरण की रक्षा हेतु हो रहे वैश्विक आंदोलनों की ओर गया, तो अंतरराष्ट्रीय पटल पर ’चिपको आंदोलन’ की प्रणेता गौरा देवी का नाम और उनके साहस को आदरपूर्वक याद किया गया। प्रसिद्ध टाइम पत्रिका द्वारा प्रकाशित विश्व की सर्वश्रेष्ठ महिलाएं की सूची में गौरा देवी को भी सम्मिलित किया गया। गौरा देवी का पर्यावरण संरक्षण हेतु योगदान किसी से छिपा नहीं है। उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना वृक्षों को बचाने के लिए जो संघर्ष किया वह इतिहास बन गया है। गौरा देवी आज भी नारी शक्ति व पर्यावरण के लिए संघर्ष और दृढ़ संकल्प का जीवंत अनुकरण हैं।

भारत की है मिसाल ‘चिपको’ आंदोलन। इस आंदोलन ने वृक्षों के कटान को रोकने और पर्यावरण को बचाने के लिए जो भूमिका निभाई, वह आज भी समसामयिक बनी हुई है। वृक्षों की रक्षा के लिए महिलाओं ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया। इस आंदोलन में जो महिला एक प्रेरणास्त्रोत बनकर उभरीं, वह थीं गौरा देवी।

उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर वृक्षों की रक्षा की और एक जनआंदोलन को जन्म दिया। गौरा देवी ने अपने साहस, नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता से चिपको आंदोलन को एक नई दिशा दी।

गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के चमोली जिले के लाता गांव में हुआ था। वे एक साधारण परिवार से थीं, लेकिन उनके विचार असाधारण थे। बहुत कम उम्र में उनकी शादी हो गई और जल्दी ही वे विधवा भी हो गईं। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और अपने बेटे के पालन-पोषण के साथ-साथ समाज सेवा में भी सक्रिय रहीं।

1970 के दशक में जब उत्तराखंड के जंगलों में अंधाधुंध कटाई शुरू हुई, तब गौरा देवी ने इसका विरोध किया। उन्होंने देखा कि पेड़ केवल लकड़ी नहीं हैं, बल्कि गांव की जीवनरेखा हैं। ये पेड़ जल स्रोतों को सुरक्षित रखते हैं, मिट्टी के कटाव को रोकते हैं और वन्य जीवन को आश्रय देते हैं।

26 मार्च 1974 को जब कुछ ठेकेदार जंगल काटने आए, तब गांव के पुरुष बाहर थे। गौरा देवी ने गांव की महिलाओं को इकट्ठा किया और जंगल की ओर चल पड़ीं। वहां पहुंचकर उन्होंने पेड़ों को काटने से मना किया, लेकिन ठेकेदार नहीं माने। तब गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर उन्हें अपने शरीर की ढाल दी। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, जिसने चिपको आंदोलन को जन्म दिया।

इस आंदोलन ने देश और दुनिया को पर्यावरण संरक्षण का एक नया मार्ग दिखाया। गौरा देवी की भूमिका इसमें केंद्रीय रही। उनके नेतृत्व में यह आंदोलन केवल एक क्षेत्रीय आंदोलन नहीं रहा, बल्कि यह एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बना।

गौरा देवी का योगदान केवल पर्यावरण की रक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने महिलाओं को संगठित किया, उन्हें आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी और समाज में उनके महत्व को रेखांकित किया।

आज, पर्यावरण संरक्षण और महिलाओं की सशक्तिकरण की दिशा में गौरा देवी की भूमिका को याद करना न केवल उन्हें श्रद्धांजलि देना है, बल्कि यह हमें यह भी सिखाता है कि एक व्यक्ति भी अगर ठान ले तो वह बड़े परिवर्तन का सूत्रपात कर सकता है।

गौरा देवी का निधन 1991 में हुआ, लेकिन उनका जीवन और कार्य आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि पर्यावरण की रक्षा केवल सरकार या संस्थाओं का काम नहीं, बल्कि यह हम सभी की जिम्मेदारी है।

उनकी शौर्यगाथा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी और चिपको आंदोलन की यह गूंज सदा बनी रहेगी।

गौरा देवी और उनकी साथिनें डटी रहीं। आखिरकार ठेकेदारों को बैरंग वापस लौटना पड़ा।

गौरा देवी और उनकी साथिनों ने जंगल की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाई। उन्होंने यह दिखा दिया कि यदि मन में संकल्प हो तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है। उनके नेतृत्व और साहस ने चिपको आंदोलन को एक नई ऊंचाई दी और इसे वैश्विक पहचान दिलाई।

गौरा देवी का जीवन संघर्षों से भरा था। उन्होंने न केवल जंगलों की रक्षा की, बल्कि महिलाओं को भी जागरूक किया। उन्होंने यह साबित कर दिया कि महिलाएं सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे समाज में बदलाव लाने की ताकत रखती हैं।

1973 में चमोली जिले के रैंणी गांव में गौरा देवी ने जब पहली बार पेड़ों को बचाने के लिए महिलाओं को संगठित किया, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह आंदोलन इतना बड़ा रूप लेगा। उन्होंने गांव की महिलाओं को समझाया कि ये जंगल केवल लकड़ी का स्रोत नहीं हैं, बल्कि यह हमारे जीवन का आधार हैं। यदि ये जंगल कट जाएंगे तो हमारी नदियां सूख जाएंगी, जलस्रोत समाप्त हो जाएंगे और हमारा जीवन संकट में पड़ जाएगा।

जब ठेकेदार जंगल काटने आए, तो गौरा देवी ने महिलाओं के साथ जंगल की ओर कूच किया। उन्होंने पेड़ों के चारों ओर घेरा बना लिया और उन पर हस्तक्षेप करने से मना किया। यह दृश्य अत्यंत मार्मिक था। निहत्थी महिलाएं, जो केवल अपने संकल्प और आत्मबल से सजी थीं, उन्होंने सशस्त्र लोगों को रोक दिया।

उन्होंने ठेकेदारों से कहा, “पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को हाथ लगाना।” इस साहसिक कार्य ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। गौरा देवी और उनकी साथिनों की वीरता की कहानियां हर तरफ फैल गईं।

यह आंदोलन न केवल पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक बना, बल्कि यह महिलाओं की शक्ति और एकजुटता का भी परिचायक बना। गौरा देवी का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो गया।

गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के चमोली जिले के लाता गांव में हुआ था। बहुत कम उम्र में उनकी शादी हो गई थी और शादी के कुछ वर्षों बाद ही वे विधवा हो गईं। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और समाज सेवा में लग गईं।

उनका जीवन सादगी और संघर्ष का प्रतीक था। वे स्वयं कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन उन्होंने अपने अनुभवों से जो ज्ञान अर्जित किया, वह अत्यंत मूल्यवान था।

गौरा देवी का मानना था कि प्रकृति और मानव के बीच संतुलन आवश्यक है। उन्होंने सदैव अपने गांव, जंगल और पर्यावरण की रक्षा को प्राथमिकता दी। उनकी सोच दूरदर्शी थी और उन्होंने यह समझ लिया था कि यदि आज जंगल नहीं बचाए गए, तो भविष्य संकट में होगा।

गौरा देवी ने न केवल जंगलों की रक्षा की, बल्कि उन्होंने गांव की महिलाओं को संगठित कर उन्हें सशक्त बनाया। उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी और समाज में उनकी भूमिका को नई पहचान दिलाई।

26 मार्च 1974 का वह दिन भारतीय पर्यावरण आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन बन गया, जब गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर जंगल को कटने से बचाया। यह ‘चिपको आंदोलन’ का चरमोत्कर्ष था।

उनका यह आंदोलन इतना प्रभावशाली था कि सरकार को जंगलों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी। इस आंदोलन ने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक नई चेतना जागृत की और इसे वैश्विक पहचान दिलाई।

गौरा देवी के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने जो कार्य किया वह आज भी लोगों को प्रेरित करता है। उनके साहस, संकल्प और नेतृत्व ने यह साबित कर दिया कि यदि एक महिला ठान ले तो वह बड़े से बड़े परिवर्तन का कारण बन सकती है।

उनका जीवन और संघर्ष आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। गौरा देवी की गाथा न केवल इतिहास है, बल्कि वह एक आदर्श है, जो हमें यह सिखाता है कि पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और समाज सेवा के क्षेत्र में हम सभी का योगदान आवश्यक है।

गौरा देवी की स्मृति में आज भी उत्तराखंड के विभिन्न भागों में आयोजन होते हैं और उनके कार्यों को याद किया जाता है। वे हमारे समाज की सच्ची नायिका थीं, हैं और रहेंगी l

पंचायत विभाग के लिए पारंपरिक गारो तानिया आवास योजना में उस समय की महिलाओं को बसा दिया गया और उन मजदूरों को यह दिशा दी गई कि जंगलों को काटा जाए और वहाँ की भूमि को समतल कर खेती योग्य बना दिया जाए। इस कार्य के लिए पुरुष मजदूरों के अनुपस्थित रहने पर महिलाओं को बुलाया गया और जंगल काटने का कार्य शुरू किया गया।

लेकिन यह बात महिलाओं को नागवार गुजरी। उन्होंने देखा कि जंगलों को काटने का मतलब उनकी आजीविका, जल स्रोत और पशु चारे का नाश करना था। उन्होंने तत्काल विरोध किया और जंगल काटने से इंकार कर दिया।

21 महिलाओं को एक सूत्र में पिरोकर गौरा देवी जंगल की ओर चल पड़ीं। गौरा देवी ने मजदूरों से कहा कि यह जंगल हमारे मायके हैं, इसे हम नहीं कटने देंगे। मजदूरों को यह समझ आ गया कि इन औरतों का इरादा पक्का है। वे अपने औजार छोड़ जंगल से भाग खड़े हुए। कुछ दूर जाकर रुके। ठेकेदार को पूरा माजरा सुनाया।

ठेकेदार को गुस्सा आया। वह खुद मजदूरों के साथ जंगल की ओर चल पड़ा। लेकिन इस बार वह कुछ नए मजदूर भी लेकर आया, जो पूरी तरह बाहरी थे। ये लोग जंगल में घुसे और पेड़ों को काटना शुरू कर दिया।

गौरा देवी और उनकी साथिनें अपनी पूरी ताकत और हिम्मत से उनका विरोध करने लगीं। गौरा देवी ने पेड़ों से लिपटकर कहा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को हाथ लगाना। महिलाओं ने नारा दिया- “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।”

इस तरह वे महिलाओं को जंगल की ओर ले गईं और रात भर वहीं रहीं। सुबह फिर ठेकेदार आया, लेकिन महिलाओं को देख वह वापस लौट गया।

इस घटना के बाद यह बात पूरे इलाके में फैल गई और लोग जंगल की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए। चिपको आंदोलन का यह रूप महिलाओं के नेतृत्व में साकार हुआ और उसने पूरे देश और दुनिया को यह संदेश दिया कि महिलाएं पर्यावरण की रक्षा में भी सबसे आगे हो सकती हैं।

गौरा देवी ने ठेकेदार की धमकियों और लालच का डटकर मुकाबला किया और अपने हौसले से यह साबित कर दिया कि यदि इरादा पक्का हो तो किसी भी बड़ी से बड़ी ताकत को रोका जा सकता है। उन्होंने यह दिखा दिया कि पर्यावरण की रक्षा केवल नारों से नहीं होती, उसके लिए धरातल पर उतरकर काम करना पड़ता है।

उनके इस अद्भुत साहस ने पूरे देश को प्रेरित किया और चिपको आंदोलन को एक नई ऊंचाई दी। इस आंदोलन ने सरकार को भी सोचने पर मजबूर कर दिया और नई नीतियां बनाई गईं, जिससे पर्यावरण की रक्षा की जा सके।

महिलाओं की इस भागीदारी ने यह साबित किया कि वे किसी भी आंदोलन में सिर्फ सहयोगी ही नहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ता की भूमिका भी निभा सकती हैं। आज जब पर्यावरण संरक्षण की बात होती है, तो गौरा देवी और चिपको आंदोलन का जिक्र जरूर होता है।

इस आंदोलन को संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी सराहा गया और इसे वैश्विक आंदोलन का दर्जा दिया गया। गौरा देवी का नाम आज भी पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा देने वाली शख्सियतों में शुमार किया जाता है। उन्होंने यह साबित किया कि यदि महिलाएं ठान लें तो वे किसी भी बदलाव की दिशा तय कर सकती हैं।

दूसरी ओर गौरा देवी ने प्रधान, पटवारी को अपने साथ लेकर जंगल पर पहरा देना शुरू कर दिया। ठेकेदार के मजदूरों की गतिविधियों की जानकारी लेने के लिए पहरेदारी की जाती थी। चूंकि इस बार ठेकेदारों को भी यह पता चल गया था कि महिलाओं की चुप्पी उनकी कमजोरी नहीं है, इसीलिए वे अब चोरी छिपे जंगल काटने लगे थे। 23 अप्रैल 1974 को मजदूर रात के अंधेरे में जंगल की ओर बढ़े। गौरा देवी को जैसे ही इसकी सूचना मिली, वह 10-12 महिलाओं को लेकर जंगल की ओर भागीं। अंधेरे और रात के सन्नाटे में जंगल की ओर दौड़ते हुए महिलाएं हांफने लगी थीं, लेकिन हौसला कम नहीं हुआ।

ठेकेदारों को जैसे ही महिलाओं के आने की भनक लगी, वे मौके से भाग खड़े हुए। महिलाओं ने जंगल को बचा लिया था, लेकिन यह मामला अब तूल पकड़ चुका था। महिलाओं ने इस मामले की जानकारी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को दी। उन्होंने 26 अप्रैल को तत्कालीन वन सचिव एम.एस. बनर्जी को रैंणी गांव भेजा। बनर्जी को महिलाओं ने सब कुछ विस्तार से बताया। उन्होंने स्वयं मौके का निरीक्षण किया और पाया कि महिलाओं की बात सही है।

इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने पेड़ों की कटाई पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया। यह चिपको आंदोलन की बड़ी जीत थी। इस आंदोलन की सफलता से देशभर में जागरूकता फैली और पर्यावरण आंदोलन को एक नई दिशा मिली।

गौरा देवी का जीवन बेहद सादा और संघर्षपूर्ण था। वे बचपन से ही साहसी और स्वाभिमानी थीं। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने घर की जिम्मेदारी उठाई और अपने बेटे को पाला-पोसा। वह खेती-किसानी के साथ सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहीं।

गौरा देवी कहती थीं – पेड़ों को बचाना मतलब जीवन को बचाना है। अगर पेड़ नहीं होंगे तो पानी नहीं होगा, मिट्टी बह जाएगी और जीवन मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने यह बात बहुत पहले ही समझ ली थी।

उन्होंने गांव की महिलाओं को संगठित किया, उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी। गौरा देवी का मानना था कि महिलाएं किसी से कम नहीं हैं और अगर वे एकजुट हो जाएं तो बड़े से बड़े परिवर्तन ला सकती हैं।

उनके इसी सोच और दृढ़ संकल्प ने चिपको आंदोलन को सफल बनाया। उन्होंने यह साबित किया कि महिलाएं न केवल घर की जिम्मेदारियों को निभा सकती हैं, बल्कि समाज और देश के हित में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं।

गौरा देवी की पहल से न केवल जंगल बचे, बल्कि इससे एक सामाजिक क्रांति की भी शुरुआत हुई। आज उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण की जो चेतना दिखाई देती है, उसका श्रेय गौरा देवी और चिपको आंदोलन को जाता है।

चिपको आंदोलन के दौरान गौरा देवी और उनकी साथिनों ने कई बार ठेकेदारों के विरोध और धमकियों का सामना किया, लेकिन वे डटी रहीं। उन्होंने यह दिखा दिया कि सच्चाई और निष्ठा के आगे कोई ताकत टिक नहीं सकती।

गौरा देवी का जीवन आज भी हमें प्रेरणा देता है। उन्होंने जो किया वह अद्वितीय था। उनकी वीरता, नेतृत्व और संघर्ष की भावना हमें यह सिखाती है कि अगर हम ठान लें तो कुछ भी असंभव नहीं है।

रैंणी गांव पहुंचते वन सचिव एमएस बनर्जी को स्थानीय महिलाओं ने बताया कि पेड़ों की कटाई से न केवल पर्यावरण को नुकसान होगा बल्कि यह क्षेत्र भूस्खलन के लिए भी संवेदनशील हो जाएगा। इस पर बनर्जी भी चकित रह गए। उन्हें भी महिलाओं की बात सही लगी और सरकार को रिपोर्ट सौंप दी। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार को 10 वर्षों तक पेड़ों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी।

इस आंदोलन के बाद रैंणी गांव की महिलाएं रात-दिन जंगल की रखवाली करती रहीं। गौरा देवी खुद भी पहरा देतीं। रात को भी कभी-कभी जंगल की ओर निकल जातीं और जंगल की रक्षा करतीं। जब कभी बाहर से लोग आते, तो उन्हें पेड़ काटने से रोकतीं और समझातीं कि जंगलों को बचाना हमारे लिए क्यों जरूरी है।

इस आंदोलन ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पर्यावरण चेतना फैलाने में मदद की। 1984 में भारत सरकार ने गौरा देवी को पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया। इसके बाद उन्हें कई अन्य पुरस्कार भी मिले।

गौरा देवी की मृत्यु 4 जुलाई 1991 को हुई। उनका जाना एक युग का अंत था।

लेकिन आज उनका सपना और उनकी यादें हमारे बीच हैं। आज भी जब पर्यावरण की बात होती है, तो चिपको आंदोलन और गौरा देवी का नाम अवश्य लिया जाता है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि यदि इरादा पक्का हो और लक्ष्य स्पष्ट हो, तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है।

आज की पीढ़ी को गौरा देवी के जीवन से प्रेरणा लेकर पर्यावरण की रक्षा के लिए कार्य करना चाहिए। यदि हम पेड़ों और प्रकृति की रक्षा करेंगे, तभी हमारा भविष्य सुरक्षित रहेगा। गौरा देवी की स्मृति में हम उन्हें नमन करते हैं।

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