महाराष्ट्र सरकार ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य भाषा बनाने की अपनी पूर्व घोषणा को वापस ले लिया है। यह फैसला राज्य की जनता, क्षेत्रीय दलों और सामाजिक संगठनों द्वारा जताई गई गहरी आपत्ति और विरोध के बाद लिया गया है। उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने शनिवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस निर्णय की पुष्टि की। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सरकार अब इस विषय पर एक नई समिति गठित करेगी, जो राज्य के लिए संतुलित भाषा नीति का प्रारूप तैयार करेगी।
पृष्ठभूमि: क्या था मामला?
कुछ समय पहले महाराष्ट्र सरकार ने एक अधिसूचना के माध्यम से हिंदी को कक्षा 1 से 5 तक के सभी स्कूलों में जरूरी विषय बनाने का निर्णय लिया था। इस निर्णय के बाद राज्य में तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। खासकर मराठीभाषी समुदाय और प्रादेशिक राजनीतिक दलों ने इसे राज्य की मातृभाषा और सांस्कृतिक पहचान के खिलाफ बताया।
राजनीतिक गलियारों में यह मुद्दा गरमा गया, और सरकार पर “हिंदी थोपी जा रही है” जैसे आरोप लगने लगे। विरोध इतना व्यापक था कि यह निर्णय को लेकर कई स्थानों पर प्रदर्शन तक किए गए। अंततः सरकार को यह कदम वापस लेना पड़ा।
उपमुख्यमंत्री का स्पष्टीकरण
फडणवीस ने प्रेस वार्ता में कहा:
“सरकार की मंशा किसी पर कोई भाषा थोपने की नहीं थी। हमने यह निर्णय इसलिए लिया था ताकि विद्यार्थियों को राष्ट्र की राजभाषा हिंदी का भी ज्ञान हो। लेकिन अगर यह कदम लोगों को आहत कर रहा है और राज्य की भावनाओं के विपरीत है, तो हम इसे वापस लेते हैं।”
उन्होंने आगे बताया कि एक नई विशेषज्ञ समिति बनाई जाएगी, जो यह तय करेगी कि राज्य के छात्रों को किस तरह से भाषाई शिक्षा दी जाए, जिससे कोई भी भाषा उपेक्षित न हो।

विरोध और प्रतिक्रिया
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं
एनसीपी सांसद सुप्रिया सुळे ने कहा: “यह केवल एक नीति की वापसी नहीं है, यह मराठी भाषा और संस्कृति की जीत है। हम हमेशा मातृभाषा को सर्वोपरि मानते हैं।”
शिवसेना (यूबीटी) और मनसे जैसे दलों ने भी सरकार के इस फैसले को लोगों की आवाज़ की जीत बताया।
एआईएमआईएम नेता इम्तियाज जलील ने कहा कि अगर सरकार लोगों की बात शुरू में ही सुनती, तो इतना विरोध न होता।
सामाजिक संगठनों का रुख
मराठी साहित्य परिषद, शिक्षक संघ और अन्य सांस्कृतिक संगठनों ने इस निर्णय की सराहना की है। उनका मानना है कि मातृभाषा के बिना किसी राज्य की शिक्षा व्यवस्था अधूरी मानी जाती है।
भाषा और राजनीति का संबंध
भारत एक बहुभाषीय देश है, जहां संविधान ने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में मान्यता दी है। ऐसे में भाषा का मुद्दा केवल शैक्षणिक या प्रशासनिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक भी हो जाता है।
महाराष्ट्र जैसे राज्य, जहां मराठी भाषा न केवल संवाद का माध्यम है बल्कि संस्कृति और गौरव का प्रतीक भी, वहां हिंदी को थोपना स्थानीय लोगों को स्वीकार्य नहीं था। हालांकि हिंदी भारत की राजभाषा है, परंतु संविधान किसी भी राज्य को अपनी भाषा में शिक्षा देने की स्वतंत्रता देता है।
हिंदी बनाम मातृभाषा: संतुलन की जरूरत
हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, लेकिन इसकी अनिवार्यता का विरोध महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहा। दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर राज्यों और पंजाब जैसे प्रदेशों में भी हिंदी के प्रसार को लेकर समय-समय पर विवाद होते रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि बहुभाषिक राष्ट्र में हर नागरिक को राष्ट्रभाषा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा (जैसे अंग्रेज़ी) का ज्ञान होना चाहिए, लेकिन इसके लिए मातृभाषा की बलि नहीं दी जा सकती। मातृभाषा न केवल संवाद का माध्यम होती है, बल्कि उससे व्यक्ति की पहचान, सोच और संस्कार भी जुड़ते हैं।
शिक्षा में भाषा का महत्व
भाषा शिक्षा का आधार है। अगर बच्चा अपनी मातृभाषा में पढ़ता है, तो वह बेहतर तरीके से समझता है और सीखता है।
महाराष्ट्र सरकार ने पहले इसी नीति का हवाला देकर हिंदी को प्राथमिक कक्षाओं में शामिल किया था। लेकिन NEP में “मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा” के विकल्प की बात कही गई है – न कि हिंदी को हर हाल में लागू करने की।


भाषाई विविधता की रक्षा कैसे हो?
विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि:
- तीन-भाषा फार्मूले को लचीला बनाया जाए।
- प्रत्येक राज्य की सांस्कृतिक संरचना के अनुसार भाषा नीति तैयार की जाए।
- मातृभाषा को शिक्षा का मूल माध्यम बनाया जाए और हिंदी/अंग्रेजी को वैकल्पिक रूप से पढ़ाया जाए।
- छात्रों और अभिभावकों को भाषा का विकल्प चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
आगे की दिशा
महाराष्ट्र सरकार अब एक उच्च स्तरीय समिति गठित कर रही है जो यह सुझाव देगी कि छात्रों को कितनी भाषाएं पढ़नी चाहिए और किस तरीके से। उम्मीद की जा रही है कि यह समिति भाषा को लेकर न केवल भावनाओं बल्कि तर्क और तथ्य के आधार पर नीति बनाएगी।
निष्कर्ष
हिंदी को अनिवार्य बनाने का महाराष्ट्र सरकार का निर्णय और फिर उसका वापसी लेना यह दिखाता है कि भारत में भाषा का विषय बेहद संवेदनशील है। यह केवल शिक्षा का हिस्सा नहीं, बल्कि समाज की आत्मा से जुड़ा हुआ मुद्दा है।
मातृभाषा की रक्षा और हिंदी व अंग्रेजी जैसी भाषाओं का ज्ञान – दोनों के बीच संतुलन बैठाना ही एक सच्ची बहुभाषीय नीति होगी। महाराष्ट्र सरकार का यह कदम भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है कि भाषाओं को थोपने के बजाय, उनके सह-अस्तित्व को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।