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नेपाल में युवा आंदोलन: सोशल मीडिया बैन से भड़का गुस्सा या लंबे समय से उबलता असंतोष?

नेपाल, एक छोटा लेकिन राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत जटिल देश, आजकल एक नए किस्म की चुनौती से जूझ रहा है। राजधानी काठमांडू से लेकर छोटे शहरों तक, सड़कों पर युवा पीढ़ी का आक्रोश खुलकर सामने आ रहा है। जिस चिंगारी ने इस आंदोलन को हवा दी, वह थी सोशल मीडिया पर लगाया गया प्रतिबंध, लेकिन यह कहना गलत होगा कि सारा मामला सिर्फ इतना भर है। आंदोलन के पीछे गहरे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण छिपे हुए हैं।

नेपाल में हाल ही में जो हुआ, वह सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि वर्षों से जमा हो रहा असंतोष का विस्फोट था। यह असंतोष मुख्य रूप से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, राजनैतिक अस्थिरता और जनविरोधी नीतियों के कारण पैदा हुआ। 4 सितंबर को सरकार द्वारा 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाना इस गुस्से को भड़काने का कारण बना।

आंदोलन की शुरुआत और सरकार की प्रतिक्रिया

जब सरकार ने सोशल मीडिया पर बैन लगाया, तो युवाओं में आक्रोश फैल गया। शुरुआत में प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे, लेकिन जैसे-जैसे सरकार की प्रतिक्रिया सख्त होती गई, प्रदर्शन उग्र होते गए। सरकार ने प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए आंसू गैस, रबर की गोलियां और यहां तक कि फायरिंग का भी सहारा लिया।

प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इन घटनाओं के लिए बाहरी ताकतों और उपद्रवियों को जिम्मेदार ठहराया और एक जांच समिति के गठन का आदेश दिया। उन्होंने शुरू में सोशल मीडिया बैन हटाने से इनकार कर दिया और कहा कि वह “उपद्रवियों” के आगे नहीं झुकेंगे। लेकिन जनता के दबाव और राजनीतिक सहयोगियों की नाराजगी के बाद अंततः उन्हें सोमवार देर रात यह फैसला वापस लेना पड़ा।

 युवाओं का गुस्सा: सोशल मीडिया से कहीं आगे

इस आंदोलन को “जेनरेशन-जेड” या “जेन-जी” का आंदोलन कहा जा रहा है क्योंकि इसमें भाग लेने वाले अधिकतर युवा 28 साल से कम उम्र के हैं। यह पहली बार है जब नेपाल में इतनी बड़ी संख्या में युवा सड़कों पर उतरे हैं। सोशल मीडिया उनके लिए सिर्फ एक मंच नहीं था, बल्कि एक ऐसा हथियार था जिसके जरिए वे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और असमानता के खिलाफ अपनी आवाज उठा सकते थे।

युवाओं का कहना था कि सत्ता में बैठे नेता और उनके परिवार के सदस्य एक ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं, जबकि आम लोग बेरोजगारी, महंगाई और असुरक्षा से जूझ रहे हैं। सोशल मीडिया पर “नेपो बेबीज” और “नेपो किड्स” जैसे शब्द ट्रेंड करने लगे। इन शब्दों के जरिए लोग नेताओं के बच्चों की लग्जरी लाइफस्टाइल पर सवाल उठा रहे थे – जैसे कि वे कौन सी नौकरी करते हैं, इतना पैसा कहां से आता है, और क्या उन्हें भी आम लोगों की तरह मेहनत करनी पड़ती है?

 नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता और अर्थव्यवस्था की हालत

नेपाल में 2008 में राजशाही की समाप्ति के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। लेकिन तब से अब तक 17 वर्षों में 14 बार सरकारें बदल चुकी हैं। एक ही चेहरों के बीच सत्ता का खेल चलता रहा – ओली, प्रचंड, देउबा, भट्टराई आदि। इन नेताओं में से कई पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग चुके हैं, लेकिन कार्रवाई कभी नहीं हुई।

नेपाल की अर्थव्यवस्था भी जर्जर हालत में है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 2025 में नेपाल की औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 1404 डॉलर (करीब 1.23 लाख रुपये) है। बेरोजगारी दर बहुत अधिक है और लाखों नेपाली हर साल विदेशों में मजदूरी करने के लिए पलायन करते हैं। देश की पर्यटन पर निर्भर अर्थव्यवस्था को भी महामारी और राजनीतिक अस्थिरता ने बुरी तरह प्रभावित किया है।

 सत्ता में सिर्फ वही लोग

नेपाल की जनता खासकर युवा वर्ग यह देख चुका है कि सत्ता पर सिर्फ कुछ ही परिवारों और राजनेताओं का कब्जा है। सत्ता का चक्र बार-बार उन्हीं लोगों के बीच घूमता रहता है। आम नागरिक की कोई भागीदारी नहीं है, न ही उनकी समस्याओं को हल करने की कोई गंभीर कोशिश होती है। यही कारण है कि युवाओं में यह भावना प्रबल हो गई है कि अगर वे आज नहीं उठे, तो भविष्य भी वैसा ही रहेगा जैसा अतीत रहा है।

आंदोलन और 2006 की क्रांति की तुलना

इस बार के आंदोलन की तुलना 2006 की उस ऐतिहासिक क्रांति से की जा रही है, जिसमें जनता ने राजशाही को उखाड़ फेंका था। उस समय भी देशभर में भारी विरोध प्रदर्शन हुए थे, जिनके दबाव में राजा को सत्ता छोड़नी पड़ी थी। अब फिर से वही माहौल बनता दिख रहा है, फर्क बस इतना है कि इस बार आंदोलन का नेतृत्व युवा वर्ग कर रहा है और मुद्दा केवल राजनीतिक नहीं, सामाजिक और आर्थिक न्याय भी है।

 सरकार के भीतर भी दरारें

प्रदर्शन और हिंसा को जिस तरह सरकार ने हैंडल किया, उससे उसकी अपनी पार्टी और गठबंधन में भी दरारें आ गईं। गृह मंत्री रमेश लेखक ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया। कृषि मंत्री ने भी सरकार की नीतियों के खिलाफ जाकर त्यागपत्र दिया। नेपाली कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भी ओली से प्रधानमंत्री पद छोड़ने की मांग की।

आखिरकार, बढ़ते दबाव और साख गिरने के कारण केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।

 सोशल मीडिया: कारोबार से परिवार तक का जरिया

नेपाल जैसे देश में सोशल मीडिया सिर्फ राजनीति का मंच नहीं है, बल्कि लाखों लोगों के लिए रोजी-रोटी और परिवार से संपर्क का साधन भी है। प्रवासी नेपाली अपने परिवारों से संपर्क में सोशल मीडिया का ही उपयोग करते हैं। छोटे व्यापारी, कलाकार, टूर गाइड, होटल व्यवसायी – सभी सोशल मीडिया पर अपने काम का प्रचार करते हैं। ऐसे में सरकार का बैन केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी एक झटका था।

 सिर्फ नीतियों में नहीं, सोच में भी बदलाव जरूरी

नेपाल का यह आंदोलन सिर्फ एक बैन के खिलाफ विरोध नहीं था। यह आंदोलन उस व्यवस्था के खिलाफ था, जो आम आदमी को दबाकर सत्ता का आनंद लेती रही। यह उस असंतुलन के खिलाफ था, जो सत्ता में बैठे और आम जनता की जिंदगी के बीच है।

अब समय आ गया है कि नेपाल की राजनीति खुद को बदले – सिर्फ चेहरों को नहीं, बल्कि सोच को। युवा पीढ़ी अब खामोश नहीं रहेगी, वह सवाल पूछेगी, सड़कों पर उतरेगी और बदलाव लाने की कोशिश करेगी।

यदि यह चेतावनी भी अनसुनी कर दी गई, तो शायद अगली बार यह आंदोलन सिर्फ सरकार को नहीं, पूरी राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की दिशा में जाएगा।

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