हिमालयी राज्यों: 25 और 26 जून को हिमाचल के कांगड़ा और कुल्लू जिलों में बादल फटने से अचानक आई बाढ़ ने तबाही मचा दी। कुल्लू में सैंज घाटी और जीव नाला, वहीं कांगड़ा में मणूणी खड्ड में पानी का स्तर अचानक बढ़ गया। कम से कम 5 लोगों की मौत और 6 लोग लापता हो गए। कई घर बह गए, पुल और सड़कें टूट गईं और जलविद्युत परियोजनाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं। मुख्यमंत्री ने सभी जिलाधिकारियों को 24×7 सतर्क रहने और राहत कार्यों को तेज़ करने का निर्देश दिया।
उत्तराखंड में बार-बार आने वाली बाढ़ और भूस्खलन: एक भूगोल आधारित विश्लेषण
उत्तराखंड, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन हर वर्ष यह राज्य बाढ़ और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का भी शिकार बनता है। इन आपदाओं के पीछे अनेक भौगोलिक कारण छिपे हैं, जो इसे एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र बनाते हैं।
सबसे बड़ा कारण है कि उत्तराखंड हिमालयी नवोदित पर्वत श्रृंखला में स्थित है। यह पर्वत श्रृंखला भूगर्भीय रूप से अभी भी सक्रिय है, और इसकी चट्टानें कमजोर और अस्थिर हैं। इसके अलावा, राज्य की भूमि में तीव्र ढलान है, जिससे वर्षा के समय जल का बहाव तेज़ हो जाता है और मिट्टी व चट्टानें आसानी से खिसक जाती हैं।
मानसून के दौरान अत्यधिक और अनियमित वर्षा, विशेषकर बादल फटने (cloudburst) की घटनाएं, अचानक बाढ़ और भूस्खलन को जन्म देती हैं। उत्तराखंड की नदियाँ — जैसे गंगा, यमुना, अलकनंदा और मंदाकिनी — अपनी युवा अवस्था में हैं और तेज बहाव के कारण किनारे काट देती हैं, जिससे तटीय इलाकों में बाढ़ आती है।
एक अन्य प्रमुख कारण है वनों की कटाई और अंधाधुंध निर्माण कार्य। सड़कें, होटल, हाइड्रो प्रोजेक्ट्स और अन्य बुनियादी ढांचे पहाड़ों की स्थिरता को कमजोर करते हैं। इससे वर्षा के समय मिट्टी को थामने वाले पेड़-पौधे नहीं रह जाते और भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है।
आज के समय में जलवायु परिवर्तन भी एक अहम भूमिका निभा रहा है। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे हिम झीलों के फटने (GLOF) की घटनाएं बढ़ रही हैं।
उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन केवल प्राकृतिक आपदा नहीं हैं, बल्कि यह मानवीय लापरवाही और असंतुलित विकास का परिणाम भी हैं। जब तक निर्माण और विकास कार्यों को वैज्ञानिक और भूगोल आधारित दृष्टिकोण से नहीं किया जाएगा, तब तक यह राज्य प्रकृति के प्रकोप का शिकार बना रहेगा।

उत्तराखंड:
- 26 जून को मौसम विभाग ने कई जिलों के लिए ऑरेंज अलर्ट जारी किया।
- भारी बारिश से पहाड़ी ढलानों में भूस्खलन और सड़कें अवरुद्ध हो गईं।
- प्रशासन ने संवेदनशील इलाकों में सतर्कता बरतने की सलाह दी है।
तत्काल प्रभाव और प्रशासनिक प्रतिक्रिया:
- मृतक और लापता: हिमाचल में 5 की मौत की पुष्टि, उत्तराखंड से नुकसान की जानकारी आनी बाकी है।
- बुनियादी ढांचे को नुकसान: कई घर, पुल, सड़कें और पनबिजली संयंत्र प्रभावित।
राहत और बचाव कार्य:
- NDRF, SDRF और साथ ही होम गार्ड्स सभी राहत कार्यों में लगे हैं।
- सैकड़ों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है और बाकि बचे लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जा रहा है।
- पर्यटकों को भी सुरक्षित निकाला गया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: हिमालयी आपदाओं का दोहराव
वर्ष | आपदा | जानमाल का नुकसान | विवरण |
2013 | उत्तराखंड बाढ़ | 6,000 मौतें (लगभग) | केदारनाथ में बादल फटने से आई विनाशकारी बाढ़ |
2021 | चमोली आपदा | 83 मौतें | ग्लेशियर फटने से आई थी बाढ़ और तबाही |
2023 | उत्तर भारत मानसून बाढ़ | 422 मौतें | हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब में व्यापक बारिश और बाढ़ |
2025 | मौजूदा आपदा | 5 मौतें, 6 लापता (लगभग) | कुल्लू-कांगड़ा में बादल फटने और अचानक बाढ़ |
इन आंकड़ों से साफ़ है कि हर साल मॉनसून के दौरान उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्य बादल फटने और फ्लैश फ्लड जैसी प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में रहते हैं।

क्यों बार-बार होती है ऐसी आपदा?
- भू-आकृति: संकरी घाटियाँ और तेज़ ढलान पानी के बहाव को और खतरनाक बना देते हैं।
- वनों की कटाई और विकास कार्य: हाइड्रो प्रोजेक्ट्स और पर्यटन के नाम पर पहाड़ियों की खुदाई से पर्यावरण असंतुलन पैदा हो रहा है।
- जलवायु परिवर्तन: मॉनसून अब ज्यादा अनियमित और तीव्र हो गया है। बादल फटने की घटनाएँ बढ़ी हैं।
- बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप: गांवों, होटलों और निर्माण कार्यों का फैलाव संवेदनशील इलाकों में बढ़ रहा है।


समाधान क्या हैं?
- पूर्व चेतावनी प्रणाली को सशक्त बनाना – रियल टाइम मॉनिटरिंग से खतरे की जानकारी पहले मिले।
- मजबूत आधारभूत संरचना – सड़कों, पुलों और बांधों को बाढ़ प्रतिरोधी बनाना होगा।
- निर्माण गतिविधियों पर नियंत्रण – पर्वतीय क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण पर सख्त रोक जरूरी।
- स्थानीय लोगों और पर्यटकों की ट्रेनिंग – आपदा से पहले की तैयारी और सुरक्षित स्थानों की जानकारी दी जाए।
- विभागों का तालमेल जरुरी – NDRF, SDRF, मौसम विभाग और स्थानीय प्रशासन के बीच बेहतर समन्वय/तालमेल होना जरुरी है।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हुई हालिया तबाही हमें एक बार फिर याद दिलाती है कि प्राकृतिक आपदाओं के खतरे अब और भी ज्यादा वास्तविक और विनाशकारी हो गए हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए सरकार, वैज्ञानिक समुदाय और आम जनता—सभी को मिलकर दीर्घकालिक रणनीति और सतर्कता को अपनाना होगा।